किताब के बारे में :
व्योमेश शुक्ल की कविताओं के बारे में / अनुराग वत्स
व्योमेश शुक्ल की कविताओं में शामिल लोग और भूगोल, दर्द और दिक्क़तें नई नहीं हैं, नया है वह कहन, जिसे वह मुमकिन करते रहे हैं। आत्मधन्य निज और नकली प्रतिकार की बजाय यहाँ ख़ुद अपनी और परिवेश की बेधक पहचान है, उसमें बहाल, बुलंद और बर्बर होती जा रही चीज़ों, लोगों और घटनाओं को उनके सही नाम से पुकारने का साहस और विवेक है। कई आईने हैं, कई अक्स।
निजी बनाम पोलिटिकल / कला बनाम कमिटमेंट / क्राफ्ट बनाम कंटेंट का आनुपात बिठा कर कविता लिखने और जांचने वाली बुद्धि के लिए व्योमेश जैसे कवि मुश्किल पेश करते रहे हैं। ‘अप्रत्याशित’—उसके महज़ चौंकानेवाले अर्थों में नहीं, हालाँकि वह भी—उनके यहाँ एक काव्य-मूल्य की तरह उपस्थित है। दृश्य—जो पहले इस तरह नहीं दिखे थे—को उनकी कविता की केंद्रीय शक्ति कहा जा सकता है।
दिलचस्प यह है कि कविता और वैचारिक गद्य के लिए वह लगभग एक जैसी भाषा का इस्तेमाल करते दिखते हैं और उसके प्रति बहुमुखी सजगता बरतते हैं। इसका उज्ज्वल प्रमाण है बनारस पर एकाग्र उनकी गद्य-पुस्तक ‘आग और पानी’, जिसे पढ़ते हुए एक लम्बी कविता का ही एहसास बना रहता है।
व्योमेश कवियों की उस छोटी सी जमात से हैं, जिनकी कविताएँ प्रकाशित होने के बरसों बाद और कविता कम लिखने के बावजूद पाठकों के ज़ेहन में दीप्त रहीं। यह ‘दीप्ति’ उन्होंने लगभग असंभव, बेसंभाल और किसी सुविधा / शब्दाभाव / ज़ल्दबाज़ी में, जिसे हम ‘आवां-गर्द’ कहते हैं—उसे अपनी कविता में एक सतत, सजग और संयंत जैविक और बौद्धिक अन्तर्क्रिया से संपन्न करके पाई है। उनकी कविता इसलिए प्रथम दृष्टया अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने से ज़्यादा बड़ी आकांक्षा से लिखी हुई कविता जान पड़ती है।
एक ऐसे समय में जब यह मान लिया गया हो कि कविता या या सरल-मति में साहित्य ही, हमारे समय के संघर्षों में हमारा बहुत साथ देने लायक नहीं रहा है, हालाँकि उससे कमतर-बदतर चीजों और लोगों से हम आस लगाये बैठे हैं, ‘बूथ पर लड़ना’ सरीखी कविताएं बोध, विचार, विवेक और अनिर्णय की हमारी दुविधाजनक स्थिति को बदलती है। वह अपने भीतर जिस अन्यथा विवादास्पद तथ्य को अपना आत्म-सत्य स्वीकार कर आगे बढ़ती है, और उसके जितने आयामों को उद्घाटित करने में सफल हुई है, उसकी अपेक्षा हम हर अच्छी कविता से करते हैं—जो असल में बहुत कम मौक़ों पर पूरी होती दिखती है। इस लिहाज़ से वह इधर लिखी जा रही कविताओं में अपने तरह की अकेली है। हालाँकि बूथ जैसी सबसे छोटी इकाई पर भी प्रतिबद्ध होकर लड़नेवाले इस कवि में इस बात का भी बहुत तीखा एहसास है कि ‘बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं’!
संख्या में बहुत अधिक कविताएँ न लिखने के बावजूद व्योमेश हिन्दी कविता के मानचित्र पर लगातार लक्षित किए जाते रहे हैं। इसकी वजह अपनी काव्य-भाषा, शिल्प और कहन में हासिल उनका वह नैरन्तर्य है, जिसे अन्य कवि आरंभिक उठान के बाद दूर तक संभाल पाने में अक्षम साबित हुए हैं। यह नैरन्तर्य, ‘तुम हो कि मुक़द्दमा लिखा देती हो’ (व्योमेश शुक्ल की अब तक लिखी गई सभी कविताओं का संग्रह) के बाद भी जारी रहेगी, कवि से ऐसी उम्मीद बेमानी नहीं।
— अनुराग वत्स
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