Dekhane Kee Trishna / देखने की तृष्णा

Dekhane Kee Trishna / देखने की तृष्णा

249.00

Book Name: Dekhane Kee Trishna / देखने की तृष्णा
Author: Sushobhit / सुशोभित
ISBN: 978-81-952549-7-2

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SKU: RUKHP20207 Category:
इस किताब में कुछ विशिष्ट फ़िल्मकारों और कुछ विशेष फ़िल्मों पर बात की गई है। जैसे दूसरी क़लम ने हिंदी-लेखन में एक बड़े अभाव की पूर्ति की थी, ठीक उसी तरह यह किताब भी करती है। ऐसा नहीं है कि विश्व सिनेमा पर हिंदी में अच्छा नहीं लिखा गया है। किंतु उसमें से अधिकतर लेखन किन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के लिए समीक्षा-प्रयोजन से लिखा गया था, इससे उनमें सिनेमा के उन दार्शनिक प्रतिफलनों का प्राकट्य नहीं हो सका है, जो कि अपेक्षित रहता है। साथ ही, हिंदी के लेखकों की दृष्टि समाजशास्त्रीय या वस्तुनिष्ठ अधिक रहती है, जबकि सिनेमा का आधुनिक कलारूप है, जिसे सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से देखा जाना चाहिए। वैसे प्रयास हिंदी में अधिक नहीं हो सके हैं, और पुस्तकाकार तो और कम हुए हैं।
यूरोप में बोल्शेविकों ने नए सिनेमा आंदोलन का सूत्रपात किया था। आइज़ेंस्ताइन के मोन्ताज प्रसिद्ध हैं। युद्धोत्तर यूरोप में कुछ बड़े सिनेमा-आंदोलन हुए, जिनमें फ्रांस का न्यूवेव और इटली का नियो-रियलिज़्म प्रमुख थे। इसी कालखण्ड में जर्मनी में नवअभिव्यंजनावाद भी उभरा। स्वीडन में बर्गमान ने अपना एक भिन्न ही स्कूल बनाया। अमरीका में न्यू हॉलीवुड सिनेमा ने क्लासिकी हॉलीवुड से अलग लीक तोड़ी। उत्तर-आधुनिक संसार में तारकोव्स्की और किश्लोवस्की जैसे सिनेमा-जगत के महारथी उभरे। इन सबकी कला में विशिष्टता और भिन्नता है। इनकी कला उनके जीवन और समय से प्रतिकृत भी होती है। फ़िल्म-तकनीक का इधर निरन्तर विकास होता रहा है और रॉबेर ब्रेसाँ ने सिनेमा और रंगमंच के अंतर्संबंधों और भेदों को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया। फ्रांस में बाज़ाँ, त्रुफ़ो, गोदार आदि ने नोटबुक्स ऑन सिनेमा पत्रिका में विद्वत्तापूर्ण निबंध लिखकर इस माध्यम के प्रति समझ विकसित की। देल्यूज़ ने फ़िल्म-थ्योरी लिखीं। इन तमाम चीज़ों की विवेचना इतिवृत्त-शैली में सम्भव नहीं है, उसके लिए सिनेमा और विशेषकर यूरोपियन सिनेमा के देशकाल में गहरे उतरना पड़ा है। इन पंक्तियों के लेखक ने स्वप्रेरणा से वह अध्यवसाय किया, जिसका फल इस पुस्तक के रूप में मिला है। पुस्तक में उपरोक्त सभी फ़िल्मकारों, फ़िल्म-स्कूलों और फ़िल्म-सैद्धान्तिकियों पर चर्चा की गई है।
देखने की तृष्णा- यह शीर्षक क्यों? क्योंकि देह की तमाम भूख की तरह आँखों में देखने की तृष्णा होती है, जिसे सिनेमा से जैसी संतुष्टि मिलती है, वह किसी और वस्तु से नहीं मिल सकती। आँखें एक अच्छा सिनेमा देखने की अभ्यस्त हो चुकी हों, पक गई हों, निष्णात हों, तो एक अच्छी फ्रेम, एक उम्दा कम्पोज़िशन और लैंडस्केप के एक सुरम्य लॉन्ग-शॉट के लिए विकलती है, तरसती है। यह दृश्यरति से कम नहीं। देखने की तृष्णा के सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में जैसे ऐंद्रिक, भौतिक और चाक्षुष आयाम हैं, उसे फ़िल्म-बफ़ ही भली प्रकार से बूझ सकते हैं।
Author

Sushobhit

Language

Hindi

ISBN

978-81-952549-7-2

Cover Type

Paperback

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